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देवता: इन्द्र: ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

यस्य॒ श्रवो॒ रोद॑सी अ॒न्तरु॒र्वी शी॒र्ष्णेशी॑र्ष्णे विब॒भाजा॑ विभ॒क्ता। स॒प्तेदिन्द्रं॒ न स्र॒वतो॑ गृणन्ति॒ नि यु॑ध्याम॒धिम॑शिशाद॒भीके॑ ॥२४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasya śravo rodasī antar urvī śīrṣṇe-śīrṣṇe vibabhājā vibhaktā | sapted indraṁ na sravato gṛṇanti ni yudhyāmadhim aśiśād abhīke ||

पद पाठ

यस्य॑। श्रवः॑। रोद॑सी॒ इति॑। अ॒न्तः। उ॒र्वी इति॑। शी॒र्ष्णेऽशी॑र्ष्णे। वि॒ऽब॒भाज॑। वि॒ऽभ॒क्ता। स॒प्त। इत्। इन्द्र॑म्। न। स्र॒वतः॑। गृ॒ण॒न्ति॒। नि। यु॒ध्या॒म॒धिम्। अ॒शि॒शा॒त्। अ॒भीके॑ ॥२४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:18» मन्त्र:24 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:28» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:24


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजा आदि किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यस्य) जिसका (श्रवः) अन्न वा श्रवण (उर्वी) बहुफलादि पदार्थों से युक्त (रोदसी) आकाश और पृथिवी को (शीर्ष्णेशीर्ष्णे) शिर के तुल्य उत्तम सुख के लिये (अन्तः) बीच में (विबभाज) विशेषता से भेजता है जिन (इन्द्रम्) इन्द्र के (न) समान (सप्त) सप्त प्रकार से (विभक्ता) विभाग को प्राप्त हुई =हुए आकाश और पृथिवी, सुखों को (इत्) ही (स्रवतः) पहुँचाते हैं जिनकी सब विद्वान् जन (गृणन्ति) प्रशंसा करते हैं उनकी विद्या से जो राजा (अभीके) समीप में (युध्यामधिम्) युद्धरूपी रोग को धारण करते शत्रु को (नि, अशिशात्) निरन्तर छेदे, वही राज्य-शिक्षा देने के योग्य हो ॥२४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं । यदि राजादि पुरुष धर्मयुक्त न्याय में वर्त कर राज्य को उत्तम शिक्षा दिलावें तो सूर्य के समान प्रजाओं में उत्तम सुखों की उन्नति कर सकते हैं और शत्रुओं को निवार =निवारण कर सुख देनेवाले समीपस्थ जनों को सत्कार करना जानते हैं ॥२४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते राजादयः किंवत् किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यस्य श्रव उर्वी रोदसी शीर्ष्णेशीर्ष्णेऽन्तर्विबभाज ये इन्द्रं न सप्त विभक्ता सत्यौ सुखानीत् स्रवतो येषां सर्वे विद्वांसो गृणन्ति तयोर्विद्यया यो राजाऽभीके युध्यामधि न्यशिशात्स एव राज्यं शासितुमर्हेत् ॥२४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) मनुष्यस्य (श्रवः) अन्नं श्रवणं वा (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अन्तः) मध्ये (उर्वी) बहुकलादियुक्ते (शीर्ष्णेशीर्ष्णे) शिरोवदुत्तमायोत्तमाय सुखाय (विबभाज) विशेषेण भजेत सेवेत (विभक्ता) विभक्ते भिन्ने (सप्त) सप्तविधे (इत्) एव (इन्द्रम्) विद्युतम् (न) इव (स्रवतः) प्रापयतः (गृणन्ति) स्तुवन्ति (नि) (युध्यामधिम्) यो युधि सङ्ग्राम आमं रोगं दधाति तं शत्रुम् (अशिशात्) छेदयेत् (अभीके) समीपे ॥२४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदि राजादयो धर्म्ये न्याये वर्त्तित्वा राज्यं प्रशासयेयुस्तर्हि सूर्यवत्प्रजासूत्तमानि सुखान्युन्नेतुं शक्नुवन्ति शत्रून्निवार्य्य भद्रान् समीपस्थाञ्जनान् सत्कर्तुं जानन्ति ॥२४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. राजा इत्यादींनी धर्मयुक्त न्यायपूर्वक वागून राज्याचे प्रशासन चालविल्यास ते सूर्याप्रमाणे प्रजेमध्ये उत्तम सुखाची वाढ करू शकतात व शत्रूंचे निवारण करून सुख देणाऱ्यांच्या जवळ राहणाऱ्या लोकांचा सत्कार करणे जाणतात. ॥ २४ ॥